रम्माण :- विरासत उत्तराखंड की
सलूड-डुंग्रा गाँव में आयोजित होने वाले “रम्माण” उत्सव का सम्बन्ध उत्तराखंड के लोक देवता भूमियाल से है। भूमियाल देवता न्याय के देवता है। उत्तराखंड में फसल कटाई के दौरान भूमियाल देवता की पौराणिक काल से ही सामूहिक रूप से पूजा अर्चना आयोजित करने की परंपरा रही है। सलूड-डुंग्रा गाँव में भी “रम्माण” उत्सव से पूर्व, तीन दिनों तक भूमियाल देवता की परिवारों में पुरे विधि विधान से पूजा की जाती है।
बैसाखी से पूर्व रात्रि को गाँव के लोग एक स्थान पर एकत्र होते है और जागरण का आयोजन किया जाता है। स्थानीय भाषा में इस आयोजन को “स्युर्तु” कहते है। ढोल-दमाऊ, भंकोरा, मजीरे (उत्तराखंड के पारंपरिक वाद्य यन्त्र) के सुर ताल में “रम्माण” उत्सव में सम्मिलित सभी लोग नृत्य करते है। “स्युर्तु” में वे सभी लोग भी होते है जो अगले दिन (बैसाखी) पर आयोजित होने वाली रम्माण नृत्य नाटिका में महत्वपूर्ण पात्रों की भूमिका निभाएंगे।
बैसाखी के दिन भूमियाल देवता को पूजा समाप्ति के पश्चात घर से बहार लाया जाता है। एक लंबे बांस के दंड के सिरे पर भूमियाल देवता की चाँदी के मूर्ति लगाई जाती है और इसे रंग बिरंगे कपड़ों, गाय की पूँछ के बालों से सजाया जाता है। स्थानीय लोग इसे “लवोटू” कहते है। गाँव के भूमियाल देवता मंदिर प्रांगण में रम्माण नृत्य नाटिका आयोजित की जाती है और रामायण के विभिन्न प्रसंगों का बड़े ही सुंदर और रोचक तरह से मंचन किया जाता है।
रामायण के प्रसंगों के मंचन के बीच बीच में पात्र जब आराम करते तो दूसरे काल्पनिक पात्र पौराणिक और ऐतिहासिक कथाओं के मंचन से दर्शकों का मनोरंजन करते है। एक व्यक्ति लवोटू को थामे रहता है और संगीत की मधुर ताल पर लवोटू को अपने साथ नृत्य भी कराता है। रम्माण के दौरान जिन ऐतिहासिक और काल्पनिक पात्रों द्वारा दर्शकों का मनोरंजन किया जाता है वे इस प्रकार है बण्यां-बण्यांण, मल्ल, कुरु-जोगी आदि। रम्माण उत्सव में बहुत से देवताओं के मुखोटे लगा कर नृत्य भी किया जाता है और जागर गीतों के माध्यम से उनका आह्वाहन किया जाता है।
संवाद विहीन रम्माण उत्सव में संगीत की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
विभिन्न संगीतमय ताल मेल और जागर (देवताओं के आह्वाहन गीत) के माध्यम से अनेक पौराणिक और ऐतिहासिक प्रसंगों को नृत्य के साथ दर्शकों के समक्ष रखा जाता है। रम्माण की प्रस्तुति में जिन लोक गायको का सहियोग लिया जाता है उन्हें यहाँ की स्थानीय भाषा में जागरिया और भल्ला कहा जाता है। आधुनिकता की अंधी दौड़ में अब रम्माण के लिए जागर गाने वाले लोक कलाकारों भी विलुप्ति की और बढ़ रहे है। सरकार और सामाजिक संस्थाओं को अब आगे आना होगा ताकि रम्माण उत्सव से जुड़े हर पहलुओं पर गंभीरता से विचार किया जा सकें और उनके संरक्षण के लिए ठोस कदम उठाये जा सकें।
रम्माण उत्सव उत्तराखंड की अमूल्य विरासत है। उत्तखंड के सभी नागरिकों का ये दायित्व बनाता है की अपनी इस विरासत को सहेजें और संवारे। आशा है, आप सभी उत्तराखंड के चमोली जिला के सलूड-डुंग्रा गाँव में रम्माण उत्सव में एक बार अवश्य आएंगे।
Nice brother keep it up
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