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Nanda Devi Raj Jat: The Himalayan Kumbh

नन्दा देवी राज जात यात्रा का इतिहास (HISTORY OF NANDA DEVI RAAJ JAAT YATRA)

 राज जात यात्रा उत्तराखंड में होने वाला अपनी तरह का अनौखा सांस्कृतिक कार्यक्रम है। यह यात्रा लगभग 12 वर्षो के बाद आयोजित होती हैं। नोटी(चमोली गढ़वाल) से राज जात प्रारम्भ होने के बाद उत्तराखंड के विभिन्न क्षेत्रों स्थानों गाँवों से वहा के देवी देवताओं के निसाणों छन्तोलियों (छतरी) और डोलियों के साथ यात्रा निकलती है और अलग.अलग स्थानों पर नोटी से आने वाली मुख्य यात्रा में शामिल हो जाती है।

प्राचीन समय में गढ़वाल के राजा द्वारा इस यात्रा का आयोजन किया जाता था।

नन्दा उत्तराखंड हिमालय वासियों की लोक देवी है। यहाँ नन्दा को व्याहि गयी बेटी के रूप में पूजा जाता है।

माना जाता है कि ऋषा सोम्य हेमन्त ऋषि और मेणा के घर, नन्दा का जन्म हुआ। बचपन में नन्दा का विवाह कैलाश वासी शिव के साथ हुआ।

शिव जी अपने ध्यान में रहते थे। नन्दा को कैलाश में अकेलापन लगता था, वहा उसे अपने मायके की याद आती थी । तब नन्दा को मायके बुलाया जाता था, एक अन्तराल के बाद बड़े प्यार और उल्लास पुर्वक ऋषासों वासी अपनी अराघ्या बेटी को ससुराल भेजते थे|

नन्दा को ससुराल भेजने का ये आयोजन ही राज जात यात्रा कहलाता है।

चौसिंग्या खांडू (Chousingyaa Khandu )-:

nanda-devi raaj jaat

परम्परा अनुसार भाद्रपद के पहले नवरात्र में चमोली गढ़वाल के कांसुवा गांव के कुंवर चौसिंग्या खाडू (चार सींग वाला भेड़) तथा रिगांल की छन्तोली;(छतरी) लेकर नौटी पहुचते है। चौसिंग्या खाडू राज जात का प्रमुख आकर्षण होता है।

चौसिगिया खाडू की मान्यता है जब नन्दा देवीदोष लगता है तब ये जन्म लेते है।

नन्दा के लिए उपहार तथा सिंगार चार सींग वाले मेडू के पीठ पर बधे फाचे में डाल दिये जाते है। माना जाता है समुद्रतल से 13200 फुट की ऊंचाई पर स्थित इस यात्रा के गन्तव्य होमकुण्ड के बाद रंग- बिरंगे वस्त्रों से लिपटे इस मेंढे को अकेले ही कैलाश की ओर रवाना कर दिया जाता है।

यात्रा के दौरान पुरे सोलहवें पड़ाव तक यह खाडू या मेंढा नन्दा देवी की रिंगाल से बनी छंतोली के पास ही रहता है।

समुद्रतल से 13200 फुट से लेकर 17500 फुट की ऊंचाई तक पहुंचने वाली यह 280 किमी लम्बी पदयात्रा 19 पड़ावों से गुजर कर वाण गावं में पहुचती हैं|

वाण यात्रा का अन्तिम गाँव है। प्राचीन काल में इसके 22 पड़ाव होने के भी प्रमाण हैं। वाण से आगे की यात्रा दुर्गम होती है और साथ ही प्रतिबंधित है।

पहली राज जात यात्रा का आयोजन कहाँ से हुआ?

नोटि(गढ़वाल) से पहली यात्रा इणाबधाणी(चमोली गढ़वाल) पहुचती है।


रिंगाल के कारिगर छन्तोली तैयार करने के बाद इसे कासुवां के कुवर लोगो को सौप देते हैं इस तरह गांव के लोग अपनी.अपनी तरह छन्तोलीयों को तैयार करते है और उसे सुसज्जित करते है।

कांसुवा के कुवर (चमोली गढ़वाल) नौटी पहुँचकर वहा मनोती (मन्न्त) मांगते है तथा इसी दिन राज जात का दिन वार तय किया जाता है।

रिंगाल के छंतोलि (छतरी) में मनोति की पोटली बाँधी जाती है। छन्तोली को नोटी और कास्वा के बीच में पड़ने वाले ओघड़ बाबा की समाधी में रखा जाता है।

भोजपत्र की अस्तर लगी छंतोली नन्दा देवी के ससुराल पक्ष की मानी जाती है। और चमकदार रेष्मी वस्त्र से ढकी चकोर छंतोलीमायके पक्ष की इन छंतोलियों को नंगे पैर पुरे रिति.रिवाज से ले जाना होता है।

नन्दा देवी को मायके से ससुराल डोली में ले जाया जाता है।

कैलाश यात्रा पर जाने से पहले नन्दा माई ईड़ाबधाणी गांव गयी ससुराल जाते समय नन्दा माई कि नजर इस गांव पर पड़ी उन्हें यह गांव बहुत पसन्द आया। ईड़ाबधाणी गांव में जमनसिंह जदोड़ा नामक व्यक्ति ने उनका आदर सत्कार किया। ईड़ाबधाणी से वापस यात्रा नोटी जाती है तथा वहां रात भर माँ का जागरण होता है।

चांदपुरगढ़ी (चमोली गढ़वाल)-:

चांदपुरगढ़ी (चमोली गढ़वाल) में पूरी यात्रा इक्टठी होती है तथा  वहां पर गढ़वाल और कुमाऊँ की यात्रा का मिलन होता है। यहां पर लोग भारी संख्या में दर्शन के लिए पहुचतें है।

सामन्ती परम्परा के समर्थकों का दावा है कि कांसुवा गांव के लोग गढ़वाल नरेश  अजय पाल के वंशज हैं। वे मानते हैं कि राजा ने जब चांदपुर गढ़ी से राजधानी बदल दी तो कांसुवा में रहने वाले उसका छोटा भाई वहीं रह गया। इसलिए उस गांव के लोग अपनी जाति कुंवर लिखते हैं।

सेम धारकोट (चमोली गढ़वाल )-:

अगला पड़ाव सेम से धारकोट (चमोली गढ़वाल) तक चढ़ाई है। अगला गांव सिमतोलीधार इस स्थान से नन्दा का मायका नोटी नहीं दिखाई देता इसलिए मां वहां पर बार-बार अपने मायक लौटना चाहती है।

दिलखड़ी धार-:

इसके बाद दिलखड़ी धार आता है। यहां पर से नन्दा के ससुराल कैलाश पर नजर पड़ती है। यहां मां छुपने का प्रयास करती है। वह अपने ससुराल नहीं जाना चाहती अगला पड़ाव नन्दकेश्रीआता हैं यहां पर कुरूणबधाण (चमोली जिले के घाट विकासखण्ड में स्थित कुरूण का सिद्धपीठ माना जाता है।) और कुमाऊं की यात्रा का मिलन होता है।

नन्दा देवी राज जात यात्रा कब से कब तक चलती है-:

वहा के लोगों के परामर्श  के बाद यह यात्रा वसन्त पंचमी के अवसर पर घोषित कार्यक्रम के बाद यह यात्रा पूरे 19 दिन तक चलती है| 

रामेश्वरम तक नन्दा को विदा करने सब लोग आते है। बैडोली गांव के छन्तोली मिलन के समय नौटी के नन्दा के अवतारी अवतरित होते है। और छन्तोली लाने वाले व्यक्ति के गले मिलतेहै। इसे देवीयों का मिलन माना जाता है।

बद्रीनाथ के कपाटोद्घाटन की ही तरह चमोली गढ़वाल के कासुवा गांव (राजा के छोटे भाई होने के कारण इस गांव का नाम कासुवा पडा़) के कुंवरों और नौटी गांव के उनके राजगुरू नौटियालों ने भी इस बसन्त पंचमी को नन्दादेवी राजजात के कार्यक्रम की घोषणा कर दी।

कांसुवा गांव में राज राजेश्वरी (मां नन्दा) को मन्दिर की जगह राजाओं के मूल घर में दी है तथा इसी गांव के कुंवरों पर नन्दा जात की जिम्मेदारी होती है।

कांसुवा गांव के ठाकुर स्वयं को सदियों तक गढ़वाल पर एकछत्र राज करने वाले पंवार वंश के एक राजा अजयपाल के छोटे भाई के वंशज मानते हैं और इसीलिए वे राजा के तौर पर इस हिमालयी धार्मिक पदयात्रा का नेतृत्व करते है।

टिहरी राजशाही के वंशज भी बसन्त पंचमी के दिन हर साल बद्रीनाथ के कपाटोद्घाटन की तिथि तय करते हैं।

गांव के ऊंपर लाटू देवता का मन्दिर है। लाटू को नन्दा देवी काधर्म भाई माना जाता है।

माना जाता है कि लाटू जब वाण में पहुचा तो वहां पर दोधानामक स्थान में एक बूढ़ी महिला रहती थी। उसके घर में दो घड़े थे एक में जान(जहर) भरा हुआ था एक में पानी, गलती से लाटू ने जान पी दिया और जान पीने के कारण उसे बेहोशी आ गयी और वो गिर गया इस कारण लाटू की जीभ कट गयी जिस कारण वह बोलने में असमर्थ रहा तब से उसका नाम लाटू पड़ा|

वाण का लाटू नन्दा देवी राज जात में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

नंदा देवी बेदनी बुग्याल

बेदनी बुग्याल-:

कहा जाता है कि बेदनी बुग्याल में बैठकर  ब्रह्मा जी  ने  वेदों की रचना की, लगभग 4 वर्ग किलो मीटर में फैला है ये बुग्याल, यहा पर प्रतिवर्श रूपकुण्ड का महोत्सव किया जाता है।

इस बुग्याल के बीच में बैद्रणीकुण्ड में राजकुवर अपने पित्रों को तरपण (मुक्ति) देते है।

यहा पर कुनियाल ब्रहामणों द्वारा पुजा भी  सम्पन्न की जाती है।यात्रियों के स्वागत के लिए मख्मली बुग्याल बिछी है। यात्रियों के लिए विश्राम कक्ष भी बनायें है। इतिहासकार डॉ0 शिवप्रसाद डबराल और डॉ0 शिवराज सिंह रावत “निशंग”  के अनुसार नरबलि के बाद इस यात्रा में 600 बकरियों और 25 भैंसों की बलि देने की प्रथा चलती रही मगर इसे भी 1968 में समाप्त कर दिया गया ।

 कूरूड़ की ड़ोली का राज जात मे महत्व :-

मां नन्दा भगवती सिद्धपीठ कुरुड विकास नगर घाट चमोली में स्थित है। यहां मां नंदा देवी अपने चतुर्भुज रुप में विराजमान हैं। कुरुड धाम में मां नंदा देवी की डोली दो रुपों में निवास करती हैं। माँ नदा कुरुड-बधाण की डोली एवं माँ नंदा कुरुड-दशोली की डोली ् कुरुड-बधाण नंदा की जात हर साल बधाण क्षेत्र में आती है एवं वैदिनी कुडं में पूजा कर वापस अपने ननिहाल देवराडा लौटती हैं।नंदा देवी वार्षिक जात में हजारों भक्त शामिल होते हैं। इसके मुख्य पडाव चरबंग ् फाली, उस्तोली, भेंटी, बगांली, डुंगरी, सूना, थराली, चेपडों, कोठी , फल्दिगाँव, ल्वाणी, मुन्दोली, और वाण हैंं। नंदा देवी की डोली इसके बाद वैदिनी कुण्ड में जात सम्पन्न कर आली बुग्याल होते हुए बांक रुकती है तथा वापस अलग अलग मार्गों से होकर आती हैं।


 मुख्य मार्ग में बांक से ल्वाणी,उलंग्रा, बेराधार, गोठिन्डा, कुराड, डाखोली, देवराडा व दुसरा मार्ग नंदकेसरी, जोला, विजयपुर,थाला, बैकोली, लोलटी, तुंगेश्रवर होकर देवराडा पंहुचती है। देवराडा में मां नंदा की डोली छ: महीने निवास करती है इसके पश्चात सिद्धपीठ कुरुड को प्रस्थान करती हैं। दशोली की जात विकासनगर घाट क्षेत्र में भ्रमण कर सप्तकुण्ड बालपाटा में भाद्रपद की सप्तमी को जात सम्पन्न की जाती है।और जात सम्पन्न होकर अपने मूल धाम कुरुड को वापस लौट आती है। वार्षिक जात में डोली सम्पूर्ण दशोली-घाट क्षेत्र में भ्रमण करती है ।


अपने भक्तों को दर्शन देकर मूल धाम कुरुड में आती हैं।कुरुड बधाण की वार्षिक जात वैदिनीकुण्ड तक व कुरुड दशोली की वार्षिक जात बालपाटा तक जाती है। जबकि नन्दा देवी राजजात(बडी जात) में कुरुड बधाण की डोली व दशोली की नन्दा देवी की डोलियाँ अलग-अलग मार्गों से होते हुये राजजात में नन्दकेशरी व वाण में सम्मिलित होकर होमकुण्ड तक जाती हैं। एवं नन्दा देवी कुरुड बधाण की डोली अपने ननिहाल देवराडा व कुरुड दशोली की डोली मूलधाम कुरुड वापस लौटती है। इस यात्रा में हज़ारों-लाखों लोग देवी के दर्शनों के लिए सिद्धपीठ कुरुड आते हैं। सिद्धपीठ कुरुड में देवी चतुर्भुज शिलामूर्ती के रुप में विराजित है।

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